महारों ने
ईस्ट इंडिया कंपनी के खिलाफ लड़ने के लिए पेशवाओं की सेना में भर्ती होने का आग्रह
किया, जिसे पेशवाओं द्वारा अपमानित ढंग से ठुकरा दिया गया था.
भारत देश में एक प्रचलित कहावत है ‘तेरे जैसे 56 देखे’ जैसा कि ऐतिहासिक घटनाओं
से कहावतों का निर्माण होता है उसी तरह इस कहावत का निर्माण भीमा कोरेगांव के
ऐतिहासिक युद्ध से हुआ है. जब महज 500 महार सैनिकों ने पेशवाओं के 28 हजार सैनिकों को धूल चटाई थी. भीमा कोरेगांव के ऐतिहासिक महत्व को समझने के
लिए पहले हमें पेशवा के बारे में समझना पड़ेगा.
पेशवा मूल रूप से छत्रपति (मराठा साम्राज्य के राजा) के
अधीनस्थ के रूप में सेवा करते थे. छत्रपति संभाजी के मृत्यु के बाद मराठा
साम्राज्य की कमान उनके भाई राजाराम के पास रही. 1700 में राजाराम की मृत्यु हुई और उनकी धर्मपत्नी ताराबाई ने अपने पुत्र शिवजी-2 के साथ मराठा साम्राज्य
की कमान संभाली.
1707 में औरंगजेब की मृत्यु
पश्चात में बहादुर शाह-1 ने छत्रपति
संभाजी के पुत्र शाहूजी को रिहाई की कुछ शर्तों पर अपनी कैद से रिहा किया. उसके तुरंत
बाद शाहूजी ने मराठा सिंहासन का दावा किया और अपनी चाची ताराबाई और उसके बेटे को
चुनौती दी. 1713 को शाहूजी ने
जो की मराठा साम्राज्य के छत्रपति बन चुके थे, उन्होंने बालाजी विश्वनाथ जो की (चितपावन ब्राह्मण )थे, उनको पांचवा पेशवा
(प्रधानमंत्री) घोषित किया, बाद मे
पेशवाओं का दौर शुरू हुआ और वे मराठा सम्राज्य के प्रमुख शक्ति केंद्र बन गए और
छत्रपति एक शक्तिविहीन औपचारिकता मात्र का शासक रह गए जैसे आज के राष्ट्रपति होते
है. मराठा साम्राज्य की पूरी कमान पेशवाओं के हाथो में आ गई और पेशवाओं (चितपावन
ब्राह्मणों) ने अपनी जातिवादी सोच के चलते महारों (दलित समाज में शामिल एक जाति जो
महाराष्ट्र केंद्रित है) पर मनुस्मृति की व्यवस्था लागू कर दी, जिसके तहत उन्हें कमर पर
झाड़ू और गले में मटका बांधने को कहा गया. ताकि जब कोई महार रास्ते से चले तो उनके
पैरों के निशान झाड़ू द्वारा मिटते रहे और वे थूंकना भी चाहे तो उन्हें अपने गले की
मटकी में ही थूकना पड़े.
यह वही दौर था जब ईस्ट इंडिया कंपनी भारत पर अपना
विस्तार करने में लगी हुई थी और उसके लिए उनको पेशवाओं को हराना बेहद जरुरी था और
ईस्ट इंडिया कंपनी ने अपनी रणनीति बना ली थी. उस वक्त महारों ने ईस्ट इंडिया कंपनी
के खिलाफ लड़ने के लिए पेशवाओं की सेना में भर्ती होने का आग्रह किया, जिसे पेशवाओं द्वारा अपमानित ढंग से ठुकरा दिया गया. यह बात जब अंग्रेजो को
पता चली तो उन्होंने महार जाती के लोगों को समानता की शर्तों पर अपने साथ ले लिया
और उन्हें अंग्रेजी सैन्य में भर्ती होने का न्योता दिया.
जब 1 जनवरी 1818 ईस्ट इंडिया कम्पनी और
पेशवाओं में युद्ध हुआ तब पेशवाओं की सेना में 20 हजार घुड़सवार और 8 हजार पैदल
ऐसे कुल 28 हजार सैनिक
थे, जिनकी अगुवाई
पेशवा बाजीराव-2 कर रहे थे और
ईस्ट इंडिया कंपनी की तरफ से बॉम्बे लाइन इन्फेंट्री में कुल 500 महार सैनिक थे. जिनमे
आधे घुड़सवार और आधे पैदल सैनिक थे.
महार रेजिमेंट के शौर्य बल के आगे पेशवा नहीं टिक सके और इस
युद्ध में पेशवाओं की करारी हार हुई. पेशवाओं का साम्राज्य खत्म हुआ. महार रेजिमेंट
की अभूतपूर्व अविस्मरणीय वीरता की यादगार में भीमा नदी के किनारे विजय स्तंभ का
निर्माण करवाया गया. जिस पर उन शूरवीरों के नाम लिखे गए, ध्यान रहे मराठा
साम्राज्य पहले ही खत्म हो चूका था. जबसे पेशवाओं ने मराठा साम्राज्य पर कब्जा कर
लिया था, इसलिए यदि कोई
कहे की यह लड़ाई मराठाओं और अंग्रेजो के बीच हुई या मराठा और महारों के बीच हुई तो
यह बात बिल्कुल गलत है.
भीमा कोरेगांव की लड़ाई पेशवाओं और
महारों के बीच हुई थी और यह लड़ाई पेशवाओं के जातिवादी घमंड के खिलाफ महारों के
आत्म सम्मान की लड़ाई थी. इसलिए दलित समाज के लिए इस लड़ाई का अलग महत्व है. इसे हम
सिर्फ दो जातियों के बीच की लड़ाई तक सीमित नहीं कर सकते. बल्कि यह लड़ाई उस
व्यवस्था के खिलाफ थी. जिसमे शुद्रों को युद्ध मे भाग लेने का अधिकार नहीं था. यह
एक जाति की विशिष्टता के खिलाफ लड़ाई थी. शुरुआत में महार समाज के लोग पेशवाओं के
पास गए थे, उनके साथ
मिलकर इस लड़ाई में शामिल होने के लिए लेकिन उन्होंने महारों को दुत्कार दिया और
उनकी काबिलियत पर सवाल उठाए यह लड़ाई महारों की अपनी काबिलियत दिखाने और पेशवाओं की
जातिगत मानसिकता का घमंड तोड़ने की लड़ाई थी.
बाबा साहेब आंबेडकर वहां जाते थे और कहते थे कि दलित
समाज के लोगों को अपने शौर्य को याद करने के लिए भीमा कोरेगांव जाना चाहिए. इसलिए
हर साल दलित समाज के लाखों लोग अपने उस शौर्य को याद करने के लिए भीमा कोरेगांव
जाकर विजय स्तम्भ को नमन करते है. लेकिन, देश की आज़ादी के बाद
भी आज तक दलितों के शौर्य को मनुवादी मानसिकता के लोग स्वीकार करने को तैयार नहीं
है, इसलिए आज भी देश की सेना में दलितों को उचित भागीदारी
नहीं मिली है.
आज सेना में राजपूत, गोरखा, मराठा रेजिमेंट है.
लेकिन अहीर, चमार, महार रेजिमेंट नहीं है, जिसकी मांग समाजवादी
पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश यादव और भीम आर्मी प्रमुख चन्द्रशेखर आज़ाद जैसे प्रमुख
नेताओं द्वारा लगातार उठाई जाती रही है. बहुजन समाज का मानना है कि देश की सेना
में पहली तो बात है समानता के लिए जाति के नामों पर रेजिमेंट होनी ही नहीं चाहिए, इसलिए सभी जातिगत नामकरण
वाली रेजिमेंट के नाम खत्म कर देने चाहिए. लेकिन यदि आप ऐसा नहीं करते हैं तो
हमारी भी अहीर, महार, चमार रेजिमेंट को बहाल
कीजिए ताकि हमारे लोगों के शौर्य को भी याद रखा जाये. यह जातिगत भेदभाव स्वीकार
नहीं किया जा सकता है जो आजतक चला आ रहा है और काबिलियत के नाम पर इसी भेदभाव के
खिलाफ लड़ाई का नाम भीमा कोरेगांव है.
आज कुछ मीडिया बन्धु जिन्हें इतिहास की जानकारी नहीं है. वह
कभी इसे जातिगत युद्ध और कभी देश के खिलाफ किये गए युद्ध की संज्ञा देते है. लेकिन
वो यह नहीं मानना चाहते कि जब समाज के एक तबके को हर जरूरी सुविधा से हर अधिकार से
वंचित रखा गया हो और गुलामों से बदतर जीवन दिया गया हो, उस स्थान को देश नहीं
कहते हैं. भारत देश सही मायनों में 26 जनवरी 1950 को बाबा साहेब
आंबेडकर के दिये संविधान के लागू होने के बाद बना है, इसलिए वह युद्ध देश के
खिलाफ नहीं एक जातिवादी व्यवस्था के खिलाफ था. लेकिन मनुवादी व्यवस्था के लोग आज
भी इसे पचा नहीं पाते. इसलिए वो आज भी अपने किये गए जातिगत भेदभाव को देशभक्ति का
मुद्दा बनाकर छिपाना चाहते है. ये वही लोग है, जिनकी जातिवादी सोच ने सदियों से झूठ, पाखंड और कपट का सहारा लेकर दलित समाज को दबाने और कुचलने के काम किया है और
लोगो का जीवन बर्बाद किया है.
जैसे तथागत बुद्ध कहते थे की कोई भी घटना अपने आप नहीं होती
बल्कि पहले घटित कुछ घटनाओं के ऊपर निर्भर करती है, ठीक वैसे ही 1 जनवरी 1818 को समाज परिवर्तन की एक
लड़ाई भीमा कोरेगांव है.
Source By : hindi.theprint.in
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